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Spirituality: जब श्री कृष्ण ने छीन ली थी अर्जुन की शक्ति,मायूस होकर घऱ वापिस आए थे अर्जुन

 Mahabharat: अर्जुन को ये भ्रम था कि महाभारत में विजय उनके कौशल और प्रताप से हुई है लेकिन श्रीकृष्ण जी को मिल कर जब वो वापिस घर आ रहे थे तो रास्ते में उनकी शक्ति खत्म होती रही।

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Krishna-Arjun-Samvad
 

Spirituality: महाभारत युद्ध के पश्चात् पाण्डवों का राज्य स्थापित था । तत्पश्चात् श्री कृष्ण द्वारिका वापिस चले गये । उन्हें गये काफी समय बीत गया था । अर्जुन उनसे मिलने द्वारिका चले गये । अर्जुन को गये हुए कुछ दिन बीत गये तो युधिष्ठिर ने अपने छोटे भीमसेन को कहा कि अर्जुन अभी तक वापिस नहीं आया है मेरे मन में बहुत उल्टे दृश्य नज़र आते हैं , कुछ भय - सा लग रहा है कि कुछ अनिष्ट होने वाला है । तुम पता लगाओ कि अर्जुन वापिस क्यों नहीं आया । अभी वे विचार कर ही रहे थे कि अर्जुन आ गये । उन्हें देखते ही युधिष्ठिर ने एकदम प्रश्नों की झड़ी लगा दी - द्वारिका में सब कुशल से तो हैं ; हमारे मामा शूरसेन जी प्रसन्न हैं । अपने छोटे भाई सहित मामा वासुदेव जी कुशलपूर्वक तो हैं । हमारी भाभी व उनकी सातों बहनें अपने पुत्रों और बहुओं के साथ प्रसन्न तो हैं । यादवों के अग्रज श्री बलराम जी तो आनन्द से हैं न । इन सबके प्रभु व हमारे परमप्रिय भगवान श्रीकृष्ण तो ठीक हैं न तुम शीघ्रता से सब कुछ कहो देर मत करो ।

प्रिय अर्जुन ! इन सबसे पहले तुम अपनी कुशलक्षेम बताओ । तुम ' श्रीहीन ' से क्यों दीख रहे हों । वहाँ तुम बहुत दिनों तक रहे , कहीं इस कारण वहाँ तुम्हारा अपमान तो नहीं हुआ । या किसी के मांगने पर तुम उसे वह वस्तु देने में असमर्थ तो नहीं रहे या अपनी ओर से प्रतिज्ञा करने के उपरान्त भी तुम कुछ देने में असमर्थ तो नहीं रहे । सभी शरणागत की रक्षा तो कर पाये हो , या कहीं मार्ग में अपने से छोटे या बराबरी वाले से तो नहीं गये हो ,कहीं बालक या ब्राह्मण को भोजन करवाए बगैर खुद तो नहीं खा लिया

युधिष्ठर ने कहा कि उन्हें विश्वास है कि अर्जुन ने ऐसा कुछ नहीं किया होगा । फिर तुम केवल इसीलिये उदास हो कि अपने सखा श्री कृष्ण से बिछुड़ गए हो। इसके अतिरिक्त और कोई कारण भी नहीं समझ में नहीं आता । एसी कौन सी पीड़ा हो रही है कि श्रीन लग रहे हो ।

अर्जुन की आंखों से झर झर आँसू बहने लगे थे । उनका गला रूंधा हुआ था । किसी तरह अपने आप पर काबू पाकर बोले महाराज मेरे भाई और अनन्त मित्रतारूप श्रीकृष्ण ने मुझे ठग लिया। मेरे जिस प्रवल पराक्रम के आगे बड़े बड़े देवता डर जाते थे उसे उसे श्री कृष्ण ने मुझसे छीन लिया । मैने उनके आशय से द्रोपदी स्वयंवर में राजा द्रुपद के घर आये हुए राजाओं का तेज हरण कर लिया था । धनुष से मछली की आंख को भेद कर द्रौपदी को प्राप्त किया . उन्हीं के आशय से देवताओं पर विजय प्राप्त की और इन्द्र तक को के हरा दिया । दस हजार हाथियों की शक्ति रखने वाले छोटे भाई भीम ने उन्हीं की कृपा से महावली जरासन्ध को मार गिराया था । तदन्तर श्री कृष्ण ने बहुत से राजाओं को मुक्त करा दिया था । उन्हीं की कृपा से भगवान शंकर और माता पार्वती ने प्रसन्न होकर मुझे अपना शस्त्र दिया था । अनेकों देवताओं ने प्रसन्न होकर मुझे अपने - अपने दिव्यास्त्र दिये । जिसकी कृपा से मुझे इस शरीर सहित इन्द्र के दरबार में जाने का अवसर मिला । मुझे इन्द्र के आधे आसन पर बैठने का गौरव प्राप्त हुआ । आज उन्हीं श्रीकृष्ण

ने मुझे ठग लिया है । महाराज ! उन्हीं की कृपा से भीष्म , द्रोण आदि अजय सेना को हरा कर मैंने मत्स्य देश का गोधन वापस दिलवाया । जिस की लोग सुबह - शाम चरण - वन्दना कर अपना सौभाग्य मानते है । मैंने उस प्रभु का अपने रथ के सारथि के रूप में प्रयोग किया । जिस समय मेरे घोड़े थक जाते थे और मुझे नीचे भूमि पर खड़े के प्रभाव से होकर चारों ओर देखना पड़ता था उस समय प्रभु मुझे महारथियों का एक भी शस्त्र छू नहीं पाया या उन महारथियों की बुद्धि ही इन्होंने बाँध दी । महाराज प्रभु को मैं अन्जाने में न जाने क्या - क्या कह जाता था । कभी मित्र तो कभी बड़े आये सत्यवादी या इसी प्रकार के कई शब्दों का प्रयोग में अक्सर कर जाता था । आज वे ही मुझसे मेरा तेज छीन ले गये हैं । भइया , इतना ही नहीं , उन्होंने मेरा सभी कुछ हर लिया है ।

 हे महाराज , मैं जब वापस आ रहा था । श्रीकृष्ण और वहां की दूसरी स्त्रियों को मैं साथ ला रहा था तो राह में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अंबला और असहाय की भान्ति हरा दिया और मैं उन नारियों की रक्षा नहीं कर सका । वही मेरा गाण्डीव धनुष था ; वही बाण थे ; वही रथ थे , वही घोड़े थे और वही मैं रथी अर्जुन था जिसके सामने बड़े - बड़े वीर खड़े नहीं रह पाते थे । श्री कृष्ण के बिना ये सब एक ही क्षण में ' नहीं ' के समान ' सार शून्य ' हो गये । ठीक उसी तरह जैसे भस्म में डाली हुई आहुति , कपटभरी सेवा में ऊसर में बोया हुआ बीज व्यर्थ जाते हैं ।

वास्तव में राजन ये प्रभु परमात्मा की ही शक्ति थी जिसने मुझमें आप में व दुसरे शूरवीरों को लीलाएँ करने का साहस व प्रोत्साहन दिया । करना अब भी तो वह सब कुछ मेरे पास ही था जो महायुद्ध के समय में था । परन्तु अब में साधारण व्यक्ति की तरह गोपों से हार गया । भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे जो शिक्षाएं दी थी वे देश , कालव प्रयोजन के अनुरूप हृदय के ताप को शान्त करने वाली थी । स्मरण आते ही वे हमारे चित्त का हरण कर लेती है । इस प्रकार प्रभु से प्रगाढ़ प्रेम करते - करते अर्जुन की मनोवृत्ति अत्यन्त निर्मल व शान्त हो गई । भक्ति के वेग से चित्त की सभी विषमताएँ स्वयं समाप्त हो जाती हैं , तब प्रभु - परमात्मा के साक्षात्कार या अनुभूति से मानव जन्म - मरण के चक्कर से पार हो जाता है । यह कहकर अर्जुन चुप हो गया । अर्जुन की ज्ञान भरी बातों से पाण्डवों को प्रश्नों के उत्तर ही नहीं मिल गये , उन्हें कृष्ण जी के असली स्वरूप का भी पता चल गया । सभी धन्य हुए